विश्व-धर्म-महासभा
धर्म-महासभा : स्वागत का उत्तर
(विश्व-धर्म-महासभा
,
शिकागो
,
११ सितंबर
,
१८९३ ई०
)
अमेरिकावासी बहनो तथा भाइयो,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति
आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण
हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको
धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी
संप्रदायों एवं मतों के कोटि -कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित
करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह
बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में
प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने
में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति,
दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही
विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे
एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और
देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते
हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को
स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका
पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का
अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के
अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाइयो, मैं आप लोगों
को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से
करता रहा हूँ और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं :
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
--'जैसे विभिन्न नदियाँभिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती
हैं, उसी प्रकार हे प्रभो!भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े
अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिलजाते हैं।'
[1]
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः
ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है :
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्ममिवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
--'जो कोई मेरी ओर आता है--चाहे किसी प्रकार से हो--मैं उसको प्राप्त होता
हूँ। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते
हैं।
[2]
सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुंदर पृथ्वी पर
बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको
बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे
पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न
होतीं, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका
समय आ गया है, और मैं आंतरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुवह इस सभा के सम्मान
में जो घंटा-ध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मांधता का, तलबार या लेखनी के द्वारा
होने वाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों
की पारस्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।
हमारे मतभेद का कारण
[3]
(
१५ सितंबर
,
१८९३ ई०)
मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी वक्ता महोदय ने
व्याख्यान समाप्त किया है, उनके इस वचन को आप लोगों ने सुना है कि 'आओ, हम लोग
एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें', और उन्हें इस बात का बड़ा खेद है कि लोगों
में सदा इतना मतभेद क्यों रहता है।
परंतु मैं समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनानेवाला हूँ, उससे आप लोगों को इस
मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाएगा। एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढक रहता था। वह
वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढक छोटा ही था।
हाँ, आज के क्रमविकासवादी (evolutionists) उस समय वहाँ नहीं थे, जो हमें यह
बतला सकते कि उस मेढक की आँखें थीं अथवा नहीं, पर यहाँ कहानी के लिए यह मान
लेना चाहिए कि उसकी आँखें थीं, और वह प्रतिदिन ऐसे पुरुषार्थ के साथ जल को
सारे कीड़ों और कीटाणुओं से रहित पूर्ण स्वच्छ कर देता था कि उतना पुरुषार्थ
हमारे आधुनिक कीटाणुवादियों
[4]
(bacteriologists) को यशस्वी बना दें। इस प्रकार धीरे- धीरे यह मेढक उसी कुँए
में रहते रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेढक, जो समुद्र में
रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा।
"तुम कहाँ से आए हो? "
"मैं समुद्र से आया हूँ।"
"समुद्र! भला, कितना बड़ा है वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह
कुआँ? " और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग
मारी।
समुद्रवाले मेढक ने कहा, "मेरे मित्र! भला, समुद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ
से किस प्रकार कर सकते हो? "
तब उस कुएँवाले मेढक ने एक दूसरी छलाँग मारी और पूछा, "तो क्या तुम्हारा
समुद्र इतना बड़ा है? "
समुद्रवाले मेढक ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की
तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती है? "
अब तो कुएँवाले मेढक ने कहा, "जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं
सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का! अरे, इसे बाहर निकाल
दो!"
यही कठिनाई सदैव रही है।
मैं हिंदू हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही
संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता है कि
सारा संसार उसीके कुएँ में है और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा हुआ
उसीको सारा ब्रह्माण्ड मानता है। मैं आप अमेरिकावालों को धन्य कहता हूँ,
क्योंकि आप हम लोगों के इन छोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का
महान प्रयत्न कर रहे हैं, और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस
उद्योग में सहायता देकर आपका मनोरथ पूर्ण करेंगे।
हिंदू धर्म पर निबंध
(धर्म-महासभा में
,
१९ सितंबर
,
१८९३ ई० को पठित)
प्रागैतिहासिक युग से चले आनेवाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान
हैं--हिंदू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म। उनको अनेकानेक प्रचंड आघात सहने
पड़े हैं, किंतु फिर भी जीवित बने रहकर वे सभी अपनी आंतरिक शक्ति का प्रमाण
प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को
आत्मसात नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्वविजयिनी दुहिता--ईसाई धर्म--द्वारा अपने
जन्म-स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान
धर्म की गाथा गाने के लिए अब अवशेष हैं,-वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने
कितने संप्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म को जड़ से हिला सा दिया;
किंतु भयंकर भूकंप के समय समुद्र-तट के जल के समान वह कुछ समय पश्चात् हज़ार
गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए पीछे हट
गया; और जब यह सारा कोलाहल शांत हो गया, तब इन समस्त धर्म-संप्रदायों को उनकी
धर्म-माता (हिंदू धर्म) की विराट् काया ने चूस लिया, आत्मसात कर लिया और अपने
में पचा डाला।
वेदांत दर्शन की अत्युच्च आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर--आधुनिक विज्ञान के
नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्ति-पूजा के
निम्न स्तरीय विचारों एवं तदानुषंगिक अनेकानेक पौराणिक दंतकथाओं तक, और
बौद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्वरवाद--इनमें से प्रत्येक के लिए
हिंदू धर्म में स्थान है।
तब यह प्रश्न उठता है कि वह कौन सा एक सामान्य बिंदु है, जहाँ पर इतनी विभिन्न
दिशाओं में जानेवाली त्रिज्याएं केंद्रस्थ होती हैं? वह कौन सा एक सामान्य
आधार है, जिस पर ये प्रचंड विरोधाभास आश्रित हैं? इसी प्रश्न का उत्तर देने का
अब मैं प्रयत्न करूँगा।
हिंदू जाति ने अपना धर्म श्रुति--वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि
वेद अनादि और अनंत हैं। श्रोताओं को, संभव है, यह बात हास्यास्पद लगे कि कोई
पुस्तक अनादि और अनंत कैसे हो सकती है। किंतु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक है ही
नहीं। वेदों का अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा
आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का
सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने के पूर्व से ही अपना काम करता चला आया था और आज
याद मनुष्य-जाति उसे भल भी जाए, तो भी वह नियम अपना काम करता ही रहगा, ठीक वही
बात आध्यात्मिक जगत का शासन करनेवाले नियमों के संबंध में भी है। एक आत्मा का
दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा
आध्यात्मिक संबंध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे, और हम यदि उन्हें भूल
भी जाये, तो भी बने रहेंगे।
इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले 'ऋषि' कहलाते हैं और हम उनको
पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देत हैं। श्रोताओं को यह बतलाते
हुए मुझे हर्ष होता है कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये नियम, नियम के रूप में अनंत भले ही हों, पर इनका
आदि तो अवश्य ही होना चाहिए। वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि है, न
अंत। विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया है कि समग्र विश्व की सारी ऊर्जा-समष्टि
का परिमाण सदा एक सा रहता है। तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था, जब कि किसी वस्तु
का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह संपूर्ण व्यक्त ऊर्जा कहाँ थी? कोई कोई
कहते हैं कि ईश्वर में ही यह सब अव्यक्त रूप में निहित थी। तब तो ईश्वर कभी
अव्यक्त और कभी व्यक्त है; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा। प्रत्येक विकारशील
पदार्थ यौगिक होता है और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्यम्भावी है,
जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल है।
अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी।
मैं एक उपमा दूँ : स्रष्टा और सृष्टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि है, न
अंत, और जो समानांतर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता है, जिसकी शक्ति
से प्रलय-पयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता है, वे
कुछ काल तक गतिमान रहते हैं और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिए जाते हैं।
सूर्याचंद्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् अर्थात् इस सूर्य और इस चंद्रमा को
विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चंद्रमा के समान निर्मित किया है--इस
वाक्य का नित्य पाठ प्रत्येक हिंदू बालक प्रतिदिन करता है।
यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बंद करके यदि मैं अपने अस्तित्व'मैं',
'मैं', 'मैं' को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है? इस
भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ
नहीं हूँ? वेदों की घोषणा है--'नहीं' मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं
शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान
हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। मेरा एक अतीत
भी है। आत्मा की सृष्टि नहीं हुई है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है, भिन्न-भिन्न
द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी है। अतएव यदि
आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। कुछ लोग जन्म से ही सुखी
होते हैं, पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें सुंदर शरीर, उत्साहपूर्ण
मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। दूसरे कुछ लोग जन्म से ही
दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और
येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों? यदि ये सभी
एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किए हों, तो फिर उसने एक को सुखी और
दूसरे को दुःखी क्यों बनाया? ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों है? फिर ऐसा मानने से
भी बात नहीं सुधर सकती कि जो इस वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, वे भावी जीवन में
पूर्ण सुखी रहेंगे। न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी
दुःखी क्यों रहे?
दूसरी बात यह है कि सृष्टि-उत्पादक ईश्वर को मान्यता देनेवाला सिद्धांत वैषम्य
की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान पुरुष का
निष्ठुर आदेश ही प्रकट करता है। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही
चाहिए, जिनके फलस्वरूप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करता है। और ये
कारण हैं, उसके ही पूर्वानुष्ठित कर्म।
क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से
प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन), सत्ता की दो
समानान्तर रेखाएँ हैं। यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपान्तर ही, जो कुछ यहाँ है,
उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता
ही न रह जाती। पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़
से हुआ है, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य है, तो आध्यात्मिक
अद्वैतवाद निश्चय ही तर्कसंगत है और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम
वांछनीय नहीं; परंतु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं है।
हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से
प्राप्त करता है; किंतु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति है,
जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता है। आत्मा
की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती
है। एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा 'योग्यं योग्येन युज्यते' इस नियमानुसार
उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे
उपयुक्त आधार हो। यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की
व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत आवृत्तियों से बनती है। अतएव नवजात
जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती
हैं। और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होतीं, अतः वे पिछले जीवन से
ही आई होंगी।
एक और दृष्टिकोण है। ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें, तो मैं अपने
पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता? इसका समाधान सरल है। मैं अभी
अंग्रेजी बोल रहा हूँ। वह मेरी मातृभाषा नहीं है। वस्तुतः इस समय मेरी
मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं है; पर उन शब्दों को
सामने लाने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मेरे मन में उमड़ आते हैं। इससे यही
सिद्ध होता है कि चेतना मानस-सागर की सतह मात्र है और भीतर, उसकी गहराई में,
हमारी समस्त अनुभवराशि संचित है। केवल प्रयत्न तथा उद्यम कीजिए, वे सब ऊपर उठ
आएंगे, और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण है। सत्य-साधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण
प्रमाण होता है, और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं। हमने उस
रहस्य का पता लगा लिया है, जिससे स्मृति-सागर की गंभीरतम गहराई तक का मंथन
किया जा सकता है--उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों की संपूर्ण
संस्मृति प्राप्त कर लेंगे।
अतएव हिंदू का यह विश्वास है कि वह आत्मा है। 'उसको शस्त्र काट नहीं सकते,
अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
[5]
'हिंदुओं की यह धारणा है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है,
किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित है; और मृत्यु का अर्थ है, इस केंद्र का
एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना। यह आत्मा जड़ की उपाधियों से
बद्ध नहीं है। वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव है। परंतु किसी कारण
से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती है, और अपने का जड़ ही समझती है।
अब दूसरा प्रश्न यह है कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त आत्मा इस प्रकार जड़
का दासत्व क्यों करती है? स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का
भ्रम कैसे हो जाता है? हमें यह बताया जाता है कि हिंदू लोग इस प्रश्न से कतरा
जाते हैं और कह देते हैं कि ऐसा प्रश्न हो ही नहीं सकता। कुछ विचारक
पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्त को भरने के लिए बड़े
बड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं। परंतु नाम दे देना व्याख्या नहीं
है। प्रश्न ज्यों का त्यों ही बना रहता है। पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा
अपूर्ण कैसे हो सकता है; शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को
सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता है? पर हिंदू ईमानदार है।
वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता। पुरुषोचित रूप में इस प्रश्न का
सामना करने का साहस वह रखता है, और इस प्रश्न का उत्तर देता है, "मैं नहीं
जानता। मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी,
जड़-पदार्थों के संयोग से अपने को जड़-नियमाधीन कैसे मानने लगी।" पर इस सबके
बावजूद तथ्य जो है, वही रहेगा। यह सभी की चेतना का एक तथ्य है कि प्रत्येक
व्यक्ति अपने को शरीर मानता है। हिंदू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्न
नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता है। यह ईश्वर की इच्छा है', यह
उत्तर कोई समाधान नहीं है। यह उत्तर हिंदू के 'मैं नहीं जानता' के सिवा और कुछ
नहीं है।
अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर है, पूर्ण और अनंत है, और मृत्यु का अर्थ
है--एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केंद्र-परिवर्तन। वर्तमान अवस्था हमारे
पूर्वानुष्ठित कर्मों द्वारा निश्चित होती है और भविष्य, वर्तमान कर्मों
द्वारा। आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास
करती है, कभी प्रत्यागमन करती है। पर यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता है--क्या
मनुष्य प्रचंड तूफ़ान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका है, जो एक क्षण किसी वेगवान
तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती है और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी
जाती है, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती है;
क्या वह कार्य-कारण की सतत प्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ी
हुई अशक्त, असहाय भग्न पोत है, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक
क्षुद्र शलभ है, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिंता न
करते हुए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता है? इस प्रकार के
विचार से अंतःकरण काँप उठता है, पर यही प्रकृति का नियम है। तो फिर क्या कोई
आशा ही नहीं है? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं है? --यही करुण पुकार
निराशाविह्वल हृदय के अंतस्तल से ऊपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा
पहँची। वहाँ से आशा तथा सांत्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अंत:
स्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य-स्वर में इस आनंद
संदेश की घोषणा की : 'हे अमृत के पुत्रो! सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण!! तुम
भी सुनो, मैंने उस अनादि पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया है, जो समस्त
अज्ञान-अंधकार और माया के परे है। केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के
चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं है।'
[6]
'अमृत के पुत्रो'--कैसा मधुर और आशाजनक संबोधन है यह!बंधुओं! इसी मधुर
नाम--अमृत के अधिकारी से आपको संबोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें। निश्चय
ही हिंदू आपको पापी कहना अस्वीकार करता है। आप तो ईश्वर की संतान हैं, अमर
आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस मत्यभूमि पर देवता हैं।
आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन है।
आप उठे! हे सिंहो!आएँ, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेड़
हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य! आप जड़ नहीं हैं, आप
शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के।
अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि-व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का
संघात है, और न यह कि वह कार्य-कारण की अनंत कारा है; वरन् वे यह घोषित करते
हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल में, जड़-तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक
अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान है, 'जिसके आदेश से वायु चलती है,
अग्नि दहकती है, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती है।'
[7]
और उस पुरुष का स्वरूप क्या है?
वह सर्वत्र है, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है।
'तू हमारा पिता है, तू हमारी माता है, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा है, तू ही
सभी शक्तियों का मूल है; हमें शक्ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार बहनकरने
वाला है; तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को बहन करने में सहायता दे।' वैदिक
ऋषियों ने यही गाया है। हम उसकी पूजा किस प्रकार करें? प्रेम के द्वारा। 'ऐहिक
तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद
की पूजा करनी चाहिए।
वेद हमें प्रेम के संबंध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं। अब देखें कि श्री
कृष्ण ने, जिन्हें हिंदू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं, इस
प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया है और हमें क्या उपदेश दिया
है।
उन्होंने कहा है कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए।
पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी
संसार में रहना चाहिए--उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ कर्म करने में
लगे रहें।
इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्वर से प्रेम करना बुरी बात
नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्वर से प्रेम करना सबसे अच्छा है, और उसके
निकट यही प्रार्थना करनी उचित है, 'हे भगवन्, मुझे न तो संपत्ति चाहिए, न
सन्तति, न विद्या। यदि तेरी इच्छा है, तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के चक्र में
पडूँगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छोड़कर तेरी भक्ति
करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो।'
[8]
कृष्ण के एक शिष्य उस समय भारत के सम्राट थे। उनके शत्रुओं ने उन्हें
राजसिंहासन से च्युत कर दिया था और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के
जंगल में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया,
"मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता
है? " युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुंदर
है। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा
है कि मैं भव्य और संदर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम
करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ। वह अखिल सौंदर्य, समस्त
सुषमा का मूल है। वही एक ऐसा पात्र है, जिससे प्रेम करना चाहिए। उससे प्रेम
करना मेरा स्वभाव है और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिए
उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा
हो, मुझे रखे। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम के लिए ही उस पर प्रेम करना
चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता।"
[9]
वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप है, वह केवल पंचभूतों के बंधनों में बँध गई
है और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी। इस अवस्था
का नाम मुक्ति है, जिसका अर्थ है स्वाधीनता--अपूर्णता के बंधनों से छुटकारा,
जन्म-मृत्यु से छुटकारा।
और यह बंधन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता है और यह दया पवित्र लोगों को ही
प्राप्त होती है। अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी
दया किस प्रकार काम करती है? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता है।
पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर-दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता
है। 'तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है, सारे संदेह दूर हो जाते हैं।'
[10]
तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता। यही हिंदू
धर्म का मूलभूत सिद्धांत है--यही उसका अत्यंत मार्मिक भाव है। हिंदू शब्दों और
सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता। यदि इन साधारण इंद्रिय-संवेद्य विषयों
के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता है। यदि
उसमें कोई आत्मा है, जो जड़ वस्तु नहीं है, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी
विश्वात्मा है, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र
उसी से उसकी समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः हिंदू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर
के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता है: 'मैंने आत्मा का दर्शन किया; मैंने
ईश्वर का दर्शन किया है।' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त है। हिंदू धर्म
भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों या सिद्धांतों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और
प्रयत्न में निहित नहीं है, वरन् वह साक्षात्कार है, वह केवल विश्वास कर लेना
नहीं है, वह होना और बनना है।
इस प्रकार हिंदुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य है--सतत अध्यवसाय द्वारा
पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना;
और ईश्वर को इसी प्रकार प्राप्त करना, उसके दर्शन कर लेना, उस स्वर्गस्थ पिता
के समान पूर्ण हो जाना--हिंदुओं का धर्म है।
और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है? तब वह
असीम परमानंद का जीवन व्यतीत करता है। जिस एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख
पाना चाहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनंद का उपभोग करता है
और ईश्वर के साथ भी परमानंद का आस्वादन करता है।
यहाँ तक सभी हिंदू एकमत हैं। भारत के विविध संप्रदायों का यह सामान्य धर्म है।
परंतु पूर्ण निरपेक्ष होता है, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई
गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष
हो जाती है, तब वह ब्रह्म के साथ एक हो जाती है, और वह ईश्वर को केवल अपने ही
स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में--परम सत्, परम चित्, परम आनंद
के रूप में--प्रत्यक्ष करती है। इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारंबार पढ़ा
करते हैं कि इसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता है या
पत्थर के समान बन जाता है!
'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी है, वे ही चोट के दाग़ की ओर हँसी की दृष्टि से
देखते हैं।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र
शरीर की चेतना से इतना आनंद होता है, तो दो शरीरों की चेतना का आनंद अधिक होना
चाहिए, और उसी तरह क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ साथ आनंद की मात्रा भी
अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्व-चेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था
प्राप्त हो जाएगी।
अतः उस असीम विश्व-व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय
क्षुद्र व्यक्तित्व का अंत होना चाहिए। जब मैं प्राणस्वरूप से एक हो जाऊँगा,
तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनंदस्वरूप हो जाऊँगा,
तभी दुःख का अंत हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का
अंत हो सकता है, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है। विज्ञान ने मेरे
निकट यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है, वास्तव
में मेरा यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता
रहनेवाला पिंड है, और मेरे दूसरे पक्ष--आत्मा के संबंध में अद्वैत ही अनिवार्य
निष्कर्ष है।
विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण
एकता तक पहुँच जाएगा, त्यों ही उसकी प्रगति रुक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने
लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल
तत्त्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह और आगे नहीं
बढ़ सकेगा। भौतिकी जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगी, अन्य शक्तियाँ जिसकी
अभिव्यक्ति हैं, तब वह वहीं रुक जाएगी। वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय
पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के इस लोक में
एकमात्र जीवन है, जो इस परिवर्तनशील जगत का शाश्वत आधार है, जो एकमात्र
परमात्मा है, अन्य सब आत्माएँ जिसकी प्रतीय मान अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार
अनेकता और द्वैत में होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है। धर्म इससे
आगे नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है।
समग्र विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे। आज विज्ञान का
शब्द अभिव्यक्ति है, सृष्टि नहीं; और हिंदू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता है कि
जिसको वह अपने अंतस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा है, अब उसीकी
शिक्षा अधिक सशक्त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्त प्रकाश
में दी जा रही है।
अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह
मैं प्रारंभ में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद
नहीं है। प्रत्येक मंदिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पाएगा कि
भक्तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते
हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो
सकती है। 'गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगंधि
तो वैसी ही मधुर देता रहेगा।' नाम ही व्याख्या नहीं होती।
बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा
करके धर्मोपदेश कर रहा था। बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह
गया, "अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती
है? " "एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, "अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को
गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता है? " पादरी बोला, "मरने के बाद वह
तुम्हें सजा देगा।" हिंदू भी तनकर बोल उठा, "तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी
देवमूर्ति भी तुम्हें दंड देगी।"
वृक्ष अपने फलों से जाना जाता है। जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में मैं
ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी
नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ--'क्या पाप से भी
पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती है? '
अंधविश्वास मनुष्य का महान शत्रु है, पर धर्मान्धता तो उससे भी बढ़कर है। ईसाई
गिरजाघर क्यों जाता है? क्रूस क्यों पवित्र है? प्रार्थना के समय आकाश की ओर
मुँह क्यों किया जाता है? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ
क्यों रहा करती हैं? और प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय
इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं? मेरे भाइयो! मन में किसी मूर्ति के बिना
आए कुछ सोच सकना उतना ही असंभव है, जितना श्वास लिए बिना जीवित रहना। साहचर्य
के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्दीपन हो जाता है, अथवा
मन में भावविशेष का उद्दीपन होने से तदनुरूप मूर्ति विशेष का भी आविर्भाव होता
है। इसीलिए तो हिंदू आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता है। वह आपको
बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को अपने ध्यान के विषय परमेश्वर में
एकाग्रता से स्थिर रहने में सहायता देता है। वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह
से जानता है, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही है और न
सर्वव्यापी ही। और सच पूछिए तो दुनिया के लोग 'सर्वव्यापित्व' का क्या अर्थ
समझते हैं? वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र है। क्या परमेश्वर का भी कोई
क्षेत्रफल है? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं,
उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं?
अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनंतता की भावना को
नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से संबद्ध करना पड़ता है; उसी तरह हम
पवित्रता के भाव को अपने स्वभावानुसार गिरजाघर, मस्जिद या क्रूस से जोड़ लेते
हैं। हिंदू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का संबंध
विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। अंतर यह है कि जहाँ अन्य लोग अपना
सारा जीवन किसी गिरजाघर की मूर्ति की भक्ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे
नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही है कि कुछ विशिष्ट
सिद्धांतों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने मानव-बंधुओं की
भलाई करते रहें--वहाँ एक हिंदू की सारी धर्म-भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या
आत्म-साक्षात्कार में केंद्रीभूत होती है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार
करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मंदिर, गिरजाघर या ग्रंथ तो धर्म-जीवन की
बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र हैं; पर उसे उत्तरोत्तर उन्नति ही
करनी चाहिए।
मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए। शास्त्र का वाक्य है कि 'बाह्य पूजा या
मूर्ति-पूजा सबसे नीचे की अवस्था है; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक
प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है, और सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब
परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।
[11]
' देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या
कह रहा है--'सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चंद्रमा या तारागण
ही; वह विद्युत्प्रभा भी परमेश्वर को उद्भसित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य
अग्नि की बात ही क्या! ये सभी उसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं।'
[12]
पर वह किसीकी मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता है। वह
तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है। 'बालक ही मनुष्य
का जनक है।' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा
कहना उचित होगा?
यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है,
तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह उस अवस्था के परे पहुँच गया है, तब
भी उसके लिए मूर्ति-पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। हिंदू की दृष्टि में
मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न
श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है। हिंदू के
मतानुसार निम्नतम जड़पूजावाद से लेकर सर्वोच्च ब्रह्मवाद तक जितने धर्म हैं,
वे सभी अपने अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम
के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवात्मा के विविध प्रयत्न हैं, और यह
प्रत्येक प्रयत्न उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता है। प्रत्येक जीव उस युवा
गरुड़ पक्षी के समान है, जो धीरे- धीरे ऊँचा उड़ता हुआ तथा अधिकाधिक
शक्ति-सम्पादन करता हुआ अंत में उस भास्वर सूर्य तक पहुँच जाता है।
अनेकता में एकता प्रकृति का विधान है और हिंदुओं ने इसे स्वीकार किया है। अन्य
प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिएगए हैं और सारे समाज को
उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वह समाज के सामने केवल एक कोट रख देता
है, जो जैक, जॉन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए। यदि वह जॉन या हेनरी के
शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढंकने के लिए बिना कोट के ही रहना
होगा। हिंदुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्म-तत्त्व का साक्षात्कार,
चिंतन या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या
नवोदित चंद्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं, जिनमें
धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर
एक के लिए हो, किंतु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं
है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं कि वे ग़लत हैं। हिंदू धर्म में वे
अनिवार्य नहीं हैं।
एक बात आपको अवश्य बतला दूँ। भारतवर्ष में मूर्ति-पूजा कोई जघन्य बात नहीं है।
वह व्यभिचार की जननी नहीं है। वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव
को ग्रहण करने का उपाय है। अवश्य, हिंदुओं के बहुतेरे दोष हैं, उनके कुछ अपने
अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके वे दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक
सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिंदू धर्मान्ध
भले ही चिता पर अपने आपको जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए
'इन्क्विजिशन' की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिए उसके
धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष
ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है।
अतः हिंदुओं की दृष्टि में समस्त धर्म-जगत भिन्न-भिन्न रुचिवाले
स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए एक ही
लक्ष्य की ओर यात्रा है, प्रगति है। प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक
ईश्वर का उद्भव कर रहा है, और वही ईश्वर उन सबका प्रेरक है। तो फिर इतने
परस्पर विरोध क्यों हैं? हिंदुओं का कहना है कि ये विरोध केवल आभासी हैं। उनकी
उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना समायोजन
करते समय होती है।
वही एक ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के काँच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट होती
है। समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक है। परंतु प्रत्येक के
अंतस्तल में उसी सत्य का राज्य है। ईश्वर ने अपने कृष्णावतार में हिंदुओं को
यह उपदेश दिया है, 'प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह
पिरोया हुआ हूँ? '
[13]
'जहाँ भी तुम्हें मानव-सृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करने वाली अतिशय
पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही
उत्पन्न हुआ है।'
[14]
और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ है? सारे संसार को मेरी यह चुनौती है कि वह
समग्र संस्कृत दर्शनशास्त्र में मुझे एक ऐसी उक्ति तो दिखा दे, जिसमें यह
बताया गया हो कि केवल हिंदुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं। व्यास
कहते हैं, "हमारी जाति और संप्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए
मनुष्य हैं।"
[15]
एक बात और है। ईश्वर में ही अपने सभी भावों को केंद्रितकरने वालाहिंदू
अज्ञेयवादी बौद्ध धर्म और निरीश्वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्धा रख सकता है?
यद्यपि बौद्ध तथा जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं रहते, तथापि उनके धर्म की पूरी
शक्ति प्रत्येक धर्म के महान केंद्रीय सत्य--मनुष्य में ईश्वरत्व के विकास की
ओर उन्मुख है। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है। और
जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया।
भाइयो! हिंदुओं के धार्मिक विचारों की यही संक्षिप्त रूपरेखा है। हो सकता है
कि हिंदू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो, पर यदि कभी
कोई सार्वभौमिक धर्म होना है, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा,
वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य
श्री कृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, संतों पर और पापियों पर समान रूप से
प्रकाश विकीर्ण करेगा, जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम,
वरन् इन सबकी समष्टि होगा, किंतु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनंत अवकाश होगा;
जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित् उन्नत निम्नतम घृणित जंगली
मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ
गए उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धानत हो जाता है और लोग
जिसके मनुष्य होने में संदेह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें
सबको स्थान दे सके। वह धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में उत्पीड़ित या असहिष्णुता
का स्थान नहीं होगा; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता को स्वीकार
करेगा और उसका संपूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची, दिव्य प्रकृति का
साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केंद्रित होगा।
आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए, और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएंगे। सम्राट
अशोक की परिषद् बौद्ध परिषद् थी। अकबर की परिषद् अधिक उपयुक्त होती हुई भी,
केवल बैठक की ही गोष्ठी थी किंतु पृथ्वी के कोने-कोने में यह घोषणा करने का
गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि 'प्रत्येक धर्म में ईश्वर है।'
वह, जो हिंदुओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धों का बुद्ध, यहूदियों
का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता है, आपको अपने उदार उद्देश्य को
कार्यान्वित करने की शक्ति प्रदान करे! नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी
धुंधला और कभी देदीप्यमान होते धीरे- धीरे पश्चिम की ओर यात्रा करते करते उसने
समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब वह फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी
अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा है!
ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलंबिया,
[16]
तू धन्य है! यह तेरा ही सौभाग्य है कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्त से अपने
हाथ कभी नहीं भिगोये, तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी
और संपन्न होने की चेष्टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की
अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा हा था।
धर्म: भारत की प्रधान आवश्यकता नहीं
(
२० सितंबर
,
१८९३ ई०)
ईसाइयों को सत् आलोचना सुनने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए, और मुझे विश्वास
है कि यदि मैं आप लोगों की कुछ आलोचना करूँ, तो आप बुरा न मानेंगे। आप ईसाई
लोग जो मूर्तिपूजकों की आत्मा का उद्धार करने के निमित्त अपने धर्म-प्रचारकों
को भेजने के लिए इतने उत्सुक रहते हैं, उनके शरीरों को भूख से मर जाने से
बचाने के लिए कुछ क्यों नहीं करते? भारतवर्ष में जब भयानक अकाल पड़ा था, तो
सहस्रों और लाखों हिंदू क्षुधा से पीड़ित होकर मर गए; पर आप ईसाइयों ने उनके
लिए कुछ नहीं किया। आप लोग सारे हिंदुस्तान में गिरजे बनाते हैं; पर पूर्व का
प्रधान अभाव धर्म नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है--जलते हुए हिंदुस्तान के
लाखों दुःखात भूखे लोग सूखे गले से रोटी के लिए चिल्ला रहे हैं। वे हमसे रोटी
माँगते हैं, और हम उन्हें देते हैं पत्थर! क्षुधातुरों को धर्म का उपदेश देना
उनका अपमान करना है, भूखों को दर्शन सिखाना उनका अपमान करना है। भारतवर्ष में
यदि कोई पुरोहित द्रव्य-प्राप्ति के लिए धर्म का उपदेश करे, तो वह जाति से
च्युत कर दिया जाएगा और लोग उस पर थूकेंगे। मैं यहाँ पर अपने दरिद्र भाइयों के
निमित्त सहायता माँगने आया था, पर मैं यह पूरी तरह समझ गया हूँ कि
मूर्तिपूजकों के लिए ईसाई-धर्मावलंबियों से, और विशेषकर उन्हींके देश में,
सहायता प्राप्त करना कितना कठिन है।
बौद्ध धर्म : हिंदू धर्म की निष्पत्ति
(
२६ सितंबर
,
१८९३ ई०)
मैं बौद्ध धर्मावलंबी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना है, पर फिर भी मैं
बौद्ध हूँ। यदि चीन, जापान अथवा सीलोन उस महान तथागत के उपदेशों का अनुसरण
करते हैं, तो भारतवर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता
है। आपने अभी अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करनेवाला हूँ, परंतु उससे
आपको केवल इतना ही समझना चाहिए। जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता
हूँ, उनकी आलोचना! मुझसे यह संभव नहीं। परंतु बुद्ध के विषय में हमारी धारणा
यह है कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक-ठीकनहीं समझा। हिंदू धर्म
(हिंदू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म है) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता
है, उनमें आपस में वैसा ही संबंध है, जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मों में। ईसा
मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिंदू। यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं
किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया, हिंदुओं ने शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप
में ग्रहण किया है और वे उनकी पूजा करते हैं। किंतु प्रचलित बौद्ध धर्म में
तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में जो वास्तविक भेद हम हिंदू लोग दिखलाना चाहते
हैं, वह विशेषतः यह है कि शाक्य मुनि कोई नई शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं
हुए थे। वे भी ईसा के समान धर्म की सम्पूर्ति के लिए आए थे, उसका विनाश करने
नहीं। अंतर इतना ही था कि जहाँ ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाए, वहाँ
बुद्धदेव की शिक्षाओं के महत्त्व को स्वयं उनके शिष्य ही अवगत नहीं कर पाए।
जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार
बौद्ध भी हिंदू धर्म के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाए। मैं यह बात फिर
से दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आए थे, वरन् वे हिंदू
धर्म की निष्पत्ति थे, उसकी तार्किक परिणति और उसके युक्ति संगत विकास थे।
हिंदू धर्म के दो भाग हैं--कर्मकांड और ज्ञानकांड। ज्ञानकांड का विशेष अध्ययन
संन्यासी लोग करते हैं।
ज्ञानकांड में जाति-भेद नहीं है। भारतवर्ष में उच्च अथवा नीच जाति के लोग
संन्यासी हो सकते हैं, और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं। धर्म में
जाति-भेद नहीं है; जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र है। शाक्य मुनि स्वयं
संन्यासी थे, और यह उनकी ही गरिमा है कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने
'वेदों' के छिपे हुए सत्यों को निकालकर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया।
इस जगत में सबसे पहले वे ही ऐसे हुए, जिन्होंने धर्म-प्रचार की प्रथा
चलाई--इतना ही नहीं, वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने
का विचार भी सबसे पहले उन्हींके मन में उदित हुआ।
सर्वभूतों के प्रति, और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत
सहानुभूति में ही तथागत का महान गौरव सन्निहित है। उनके कुछ शिष्य ब्राह्मण
थे। बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गई थी। वह उस
समय केवल पंडितों के ग्रंथों की ही भाषा थी। बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों
ने उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा था, पर बुद्धदेव उनसे
सदा यही कहते, "मैं दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ, अत: जनभाषा में ही
मुझे बोलने दो।" और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तत्कालीन
लोकभाषा में पाए जाते हैं।
दर्शनशास्त्र का स्थान जो भी हो, तत्त्वज्ञान का स्थान जो भी हो, पर जब तक इस
लोक में मृत्यु नाम की वस्तु है, जब तक मानव-हृदय में दुर्बलता जैसी वस्तु है,
जब तक मनुष्य के अंतःकरण से दुर्बलताजनित करुण क्रन्दन बाहर निकलता है, तब तक
इस संसार में ईश्वर में विश्वास भी कायम रहेगा।
जहाँ तक दर्शन की बात है, तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर
बहुत हाथ-पैर पटके, पर वे उसे तोड़ न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से
उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमें हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता
है। फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी
पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत में अपने को बौद्ध कहने वाला एक भी
स्त्री या पुरुष नहीं है।
किंतु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया--समाज-सुधार का वह उत्साह,
प्राणिमात्र के प्रति वह आश्चर्यजनक सहानुभूति और करुणा, तथा वह अद्भुत रसायन,
जिसे बौद्ध धर्म ने जन जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज
इतना महान हो गया था कि तत्कालीन भारत के संबंध में लिखने वाले एक यूनानी
इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिंदू नहीं दिखाई देता, जो
मिथ्या-भाषण करता हो; एक भी ऐसी हिंदू नारी नहीं है, जो पतिव्रता न हो।
हिंदू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के
बिना ही। तब यह देखिए कि हमारे पारस्परिक पार्थक्य ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट
कर दिया है कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्शन और मस्तिष्क के विना नहीं ठहर सकते,
और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय के बिना। बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह
पार्थक्य भारतवर्ष के पतन का कारण है। यही कारण है कि आज भारत में तीस करोड़
भिखमंगे निवास करते हैं, और वह एक सहस्र वर्षों से विजेताओं का दास बना हुआ
है। अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय,
महानुभावता और अद्भुत लोकहितकारी शक्ति को मिला दें।
अंतिम अधिवेशन में भाषण
(
२७ सितंबर
,
१८९३ ई०)
विश्व-धर्म-महासभा एक मूर्तिमान तथ्य सिद्ध हो गई है, दयामय प्रभु ने उन लोगों
की सहायता की है, जिन्होंने इसका आयोजन किया तथा उनके परम निःस्वार्थ श्रम को
सफलता से विभूषित किया है।
उन महानुभावों को मेरा धन्यवाद है, जिनके विशाल हृदय तथा सत्य के प्रति अनुराग
ने पहले इस अद्भुत स्वप्न को देखा और फिर उसे कार्यरूप में परिणत किया। उन
उदार भावों को मेरा धन्यवाद, जिनसे यह सभामंच आप्लावित होता रहा है। इस
प्रबुद्ध श्रोतृमंडली को मेरा धन्यवाद, जिसने मुझ पर अविकल कृपा रखी है और
जिसने मत-मतांतरों के मनोमालिन्य को हल्का करने का प्रयत्न करनेवाले प्रत्येक
विचार का सत्कार किया है। इस समसुरता में कुछ बेसुरे स्वर भी बीच बीच में सुने
गए हैं। उन्हें मेरा विशेष धन्यवाद, क्योंकि उन्होंने अपने स्वर वैचित्र्य से
इस समरसता को और भी मधुर बना दिया है।
धार्मिक एकता की सर्वसामान्य भित्ति के विषय में बहुत कुछ कहा जा चुका है। इस
समय मैं इस संबंध में अपना मत आपके समक्ष नहीं रखूगा। किंतु यदि यहाँ कोई यह
आशा कर रहा है कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय और बाकी सब धर्मों के विनाश से
सिद्ध होगी, तो उनसे मेरा कहना है कि 'भाई, तुम्हारी यह आशा असंभव है।' क्या
मैं यह चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिंदू हो जाएँ? कदापि नहीं, ईश्वर ऐसा न करे!
क्या मेरी यह इच्छा है कि हिंदू या बौद्ध लोग ईसाई हो जाएँ? ईश्वर इस इच्छा से
बचाए!
बीज भूमि में बो दिया गया और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारों ओर रख दिएगए। तो
क्या वह बीज मिट्टी हो जाता है, अथवा वायु या जल बन जाता है? नहीं; वह तो
वृक्ष ही होता है, वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता है--वायु, जल और मिट्टी
को अपने में पचाकर, उनको उद्भिज पदार्थ में परिवर्तित करके एक वृक्ष हो जाता
है।
ऐसा ही धर्म के संबंध में भी है। ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं हो जाना चाहिए,
और न हिंदू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हाँ, प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के
सार-भाग को आत्मसात करके पुष्टि-लाभ करे और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए
अपनी निजी वृद्धि के नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो।
इस धर्म-महासभा ने जगत के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है, तो वह यह है: उसने
यह सिद्ध कर दिया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी संप्रदायविशेष की
ऐ कांतिक संपत्ति नहीं है, एवं प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय
उन्नत-चरित्र स्त्री-पुरुषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के
बावजूद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जाएंगे और
केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अंतस्तल से दया
करता हूँ और उसे स्पष्ट बतलाए देता हूँ कि शीघ्र ही, सारे प्रतिरोधों के
बावजूद, प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा--'सहायता करो, लड़ो मत।'
'पर-भाव-ग्रहण, न कि पर-भाव-विनाश'; 'समन्वय और शांति, न कि मतभेद और कलह!'
[1]
शिव्महिम्नस्तोत्रम ॥७॥
[3]
१५ सितम्बर, शुक्रवार के अपराह्न में धर्म-महासभा के पंचम दिवस के
अधिवेशन के समय भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी अपने अपने धर्म की प्रधानता
का प्रतिपादन करने के लिए वितण्डावाद में जुट गए थे। अन्त में स्वामी
विवेकानन्द ने यह कहानी सुनाकर सबको शांत कर दिया। स०
[4]
सब बीमारियाँ कीड़ों से उत्पन्न होती हैं, अतएव कीड़ों को नष्ट करना
चाहिए--यह इन लोगों का मत है। स०
[5]
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ गीता॥२।२३॥
[6]
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
--श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥२॥५; ३-८॥
[7]
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः॥
--कठोपनिषद् ॥२।३।३॥
[8]
न धनं न जनं न च सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥ शिक्षाष्टक ॥४॥
[9]
नाहं कर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत।
ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत ॥
धर्म एव मनः कृष्णे स्वभावाच्चैव मे धृतम्।
धर्मवाणिज्यको हीनो जघन्यो धर्मवादिनाम् ॥
--महाभारत, वनपर्व ॥३१।२।५॥
[10]
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दष्टे परावरे ॥ मुंडकोपनिषद् ॥२।२।८॥
[11]
उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः।
स्तुतिर्जपोऽधमो भावो बहिःपूजाऽधमाधमा ॥ महानिर्वाण तंत्र ॥४॥१२॥
[12]
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वे
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ कठोपनिषद् ॥२।२।१५॥
[13]
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥गीता॥७।७॥
[14]
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥गीता॥१०॥४१॥
[15]
अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः ॥वेदान्त सूत्र ॥३।४।३६॥
[16]
अमेरिका का दूसरा नाम। कोलम्बस ने इसका आविष्कार किया था, इसलिए इसका
नाम कोलम्बिया पड़ा। स०